Khyaal
Monday, 2 December 2024
मैं गुनहगार हूं।
एक कविता कहनी है मुझे
खुशबू
कहानी की तरह
Saturday, 30 November 2024
जीवन और त्रासदी
Thursday, 20 July 2023
किताबें और विचार
महीनो तक किताबे ख़ाक छानती रहीं और मेरे विचार भी। जीवन जैसे एक मोड़ पर आकर स्थिर बीतते रहना चाहता था। स्थिरता में अंधेरा ज्यादा महफूज़ लगता है और अंधेरे में वक्त स्थिर होने का एहसास कराता है। इसीलिए जीवन से नोक झोंक किए बगैर मैने कमरे को अंधेरे से भर लिया था। किताबों की अलमारी अंधेरे में भी एक सुंदर आकृति बना रही थी। अचानक मैने महसूस किया कि किताबो के अंधेरे पन्नो में पड़े शब्द अंकुरित हो उठे थे और किताबों के बीच में से बहुत सारे फूल बाहर आने लगे। किसी भी फूल में कोई रंग नही था, सब काले थे। सब एक बराबर भी नही थे, कोई बड़ा तो कोई छोटा। मैं इस घटना को समझ पाता कि इतने में उन फूलों ने एक साथ बड़बड़ाना शुरू कर दिया। वह कुछ कह रहे थे मगर शोरगुल में वो सारे शब्द समुद्र की लहरों की तरह तीतर बितर हो रहे थे, उनको समझ पाना मुश्किल था जैसे ख़ाक छानते मेरे विचारो को समझना। गौर करने पर समझ आया की हर फूल बार बार एक ही शब्द दोहरा रहा है। मैने जिज्ञासा में एक फूल को छू लिया, एकदम से सभी फूलों ने बड़बड़ाना बंद कर दिया। मैने उसी फूल को फिर से छुआ तो वह बोला "प्यार"। दूसरा बोला "इच्छाएं", तीसरा "दर्द", चौथा "खुशी"... "लालच", "जलन", "गुस्सा", "मजबूरी"... और ना जाने क्या क्या। तब मुझे पता चला कि ये फूल उस एहसास को दोहरा रहे है जिस एहसास के शब्द से ये अंकुरित हुए थे और फिर फूल में तब्दील हो गए थे। फिर सभी फूल वापस किताबों के अंधेरे में गुम होने लगे। मैने उसी वक्त एक किताब उठाई और लैंप जलाकर पढ़ने लगा और देखते ही देखते मेरे ख़ाक छानते विचारों को भी मिल गया था... उनका घर।
Tuesday, 2 August 2022
प्रतिमाएं
जो प्रतिमाएं बड़े सम्मान से खड़ी की गई है किसी के सम्मान में, मैं उनमें विचार भरना चाहता हूं। नहीं तो यह कितनी दिल जलाने वाली बात है कि वह महान व्यक्ति जिसके लिए लाखों किताबें स्याह कर दी गई हो, उस महान व्यक्ति की प्रतिमा एकदम आम तरीके से सबके बीच से निकल जाती हो। जैसे कोई अनजान व्यक्ति आंखों के आगे से गुजर जाता है, जिसको देखकर हमें कुछ महसूस नहीं होता। और जैसे वह प्रतिमा मात्र भीड़ का एक हिस्सा है और हम भी। वह भीड़ जो हम से बनी हैं और जिसकी शक्ल और विचार हमसे मिलते हैं। प्रतिमाएं भीड़ में कब तब्दील हो जाती हैं पता ही नहीं चलता। फिर उस प्रतिमा की शक्ल और विचार भी भीड़ से मिलने लगते है और उसमें अब महान जैसा कुछ शेष नहीं रह जाता। वह कितनी बेजान तरीके से खड़ी रहती है या यूं कहो की भीड़ कितनी बेजान आंखों से उसके पास से गुजर जाया करती है। इसलिए मैं उन सभी प्रतिमाओं में विचार भरना चाहता हूं। मगर यदि सच में कोई प्रतिमा बोल उठे और विचार प्रकट करने लगे तो क्या भीड़ की बेजान आंखों में जान लौट आएगी? शायद हां, मगर थोड़ी देर के लिए और कुछ ही देर में हम फिर से उसे बेजान प्रतिमा बना देंगे। अब किसी प्रतिमा के आगे से गुजरता हूं तो उसे देर तक निहारता हूं, उसका विचार प्रकट करना मेरी आंखों के जीवित होने का प्रमाण होता है।
Monday, 16 May 2022
थोड़ा आसमां
एक आसमां तुम्हारा होगा,
और एक आसमां मेरा,
तुम्हारे आसमां और मेरे आसमां
में कोई ज्यादा फर्क नहीं है
वह एक जैसे ही है,
सिवाय इसके की
इन आसमानों का विभाजन हो चुका है,
अब इन्हें असहमिय पीड़ा के साथ
हमे इन्हें खुद में बांटना होगा,
हम हर आसमां नही चुन सकते
उन्हें एक भी नही समझ सकते,
ये आज़ादी हर किसी से छीन ली गई है,
तुम थोड़ा थोड़ा हर कुछ होकर
अजीबो-गरीब लगोगे सबको,
तुम्हे एक होना होगा,
पूरा एक,
थोड़ा थोड़ा सब नही,
और वो भी "एक" आसमां के नीचे,
फिर चाहे आसमानों के विभाजन में
विभाजित हो जाए हम सब भी।
अव्यक्त
Thursday, 16 September 2021
हिचकी !
बचपन में जब कभी हिचकी खूब सताती थी तो कहा जाता था कि कोई अपना तुम्हे बहुत दिल से याद कर रहा है। साथ ही उसको रोकने के उपाय भी बताए जाते थे जैसे कि अपने प्रिय लोगो के नाम लो जो कोई भी तुम्हें याद कर रहा है। अगर उसका नाम ले लोगे तो हिचकी रुक जाएगी। और इसी खेल खेल में दो चार नाम लेने के बाद हिचकी रुक भी जाय करती थी। तब यह किसी जादू से कम नहीं लगता था। उस वक़्त जिस नाम से हमें सबसे ज्यादा उम्मीद होती थी कि वह व्यक्ति हमें याद कर रहा होगा, उसका नाम लेने की पश्चात् हम थोड़ा ठहरते थे, कभी सफलता हाथ लगती थी तो कभी नहीं। मगर एक मुस्कान चेहरे पर बैठी रहती थी। अब इतने सालो बाद कब ये खेल आदत में तब्दील हो गया, इसका पता ही नहीं चला। हिचकियां अब ज्यादा दुखी नहीं करती। और कभी करती भी है तो मन आदतन खुद ब खुद कुछ नाम दोहराना शुरू कर देता है, मगर ज्यादातर अंत में पानी पीकर ही इससे पीछा छुड़ाना पड़ता है। इससे बचपन के विश्वास पर गहरा आघात तो होता है पर इससे पहले कि वो विश्वास दगमगा कर पूरी तरह गिर जाए, कुछ सफलताएं आकर उस आदत को बने रहने का बहाना दे जाती हैं।
आज सुबह से हिचकी बहुत दुखी कर रही है। बाकी कार्य रोजमर्रा की तरह घटित हो रहे है। बस घर में थोड़ी ज्यादा शांति है। मां की आंखो में एक अलग सी स्थिरता है जैसे वह कहीं गुम हो चुकी है। वो शायद इसीलिए भी क्यूंकि कल में कुछ महीनों के लिए घर से दूर चला जाऊंगा। जब हमे पता होता है कि कोई अपना जाने को है और कल वो हमसे थोड़ा दूर होगा। तो हम आज की बजाए कल में प्रवेश कर जाते है। हम इस विचार में गुम रहते है कि कल उसके जाने के पश्चात उसकी कितनी याद आएगी। हम उस याद को याद करते है जो हमें कल आने वाली है जब वह कोई अपना चला जाएगा। और हम आज में रहकर भी उस क्षण में होते है जब वह व्यक्ति जा चुका है और हम उसकी याद में डूबे है। बल्कि आज उसके साथ रहकर भी हम उसी को याद कर रहे होते है। कितना खूबसूरत अपनापन है इसमें। घर में जो अतिरिक्त शांति बिखरी पड़ी है उसका स्त्रोत मां के चेहरे पर कहीं है। इन सब विचारों के बीच मैने एहसास किया की मां मेरे सामने पानी का ग्लास लेकर खड़ी है। मेरे मुंह से निकला ' मां ' , मैं थोड़ा ठहरा और हिचकी रुक गई।
Monday, 24 May 2021
तला और आसमां !
एक तला है समतल सा
दूर दूर तक सीधी ज़मीन,
जिससे भयंकर तपिश बहती है,
मानो उसके गर्भ की अग्नि
आजाद होना चाहती है,
उसका रूप उग्र है क्यूंकि
वो अनंत भूख की अग्नि है,
उस तले में जगह जगह
तरेड़ो ने रेखाएं बना ली है,
उसमे कोई कान लगाए तो
वो विलाप की चीखे सुन सकता है।
इन सबके ठीक ऊपर
मगर बहुत दूर,
एक खुला आसमां है,
देखने में शांत और आशावादी,
वहां तक तपिश अलग रूप
में पहुंचती है एकदम ठंडी,
वो उग्र भाव मर चुका होता है,
उस आसमां की अपनी अलग भूख है,
वो सांसों का भूखा है,
उनसे ही वो ज़िंदा है और
उसकी शोभा है,
वहां विलाप नहीं बस सन्नाटा है।
तले को मृग तृष्णा है कि
वो आसमां से मिल सकता है,
ये वहम आसमां को नहीं है
उसे सब साफ नज़र आता है,
दोनों अपनी अनंत भूख
मिटाने में व्यस्त है,
और दोनों के बीच एक
अनादि मूक संवाद स्थापित है,
जिसका उन्हें कोई ज्ञात नहीं,
दोनों एक दूसरे को निहार रहे है
बस आंखो में गहरी उम्मीद लिए।।
Tuesday, 27 October 2020
मैं टूट कर बिखर जाऊ !
मैं टूट कर बिखर जाऊ,
फिर कतरा कतरा छनु ,
जैसे मिट्टी में चूर,
खुद को ही स्पर्श करू|
मैं बट जाऊ टुकड़ों में,
फिर कोई वजूद ना हो,
अनगिनत रंग समेटु,
मीठी सी खुशबू लिए,
मैं किरणों मे लिपट जाऊ,
फिर हर हलचल पर मचलु,
अग्नि से भी तेज जलू,
हर आरज़ू आखिरी सांस ले|
मैं फिर निखरू ऐसे,
जैसे भव्य गाथा का
आगाज़ हुआ हो,
कतरा कतरा फिर बनूं
जैसे ज़िन्दगी का
एहसास हुआ हो ||
Saturday, 10 October 2020
ख़्वाब !
मैं मुड़ा,
मेरी आँखे स्थिर थी,
मेरा मन और पैर दोनों
एक समान थे,
एकदम स्तब्ध...!!
मुड़ने से पहले मैं कुछ
निहार रहा था,
वहाँ शोर था,
बहुत शोर,
जैसे कोई जश्न हो,
मुड़ते ही,
वो शोर कम हो गया,
कुछ कदम बढ़ाए
तो शोरगुल गहरे सन्नाटे
में तब्दील होने लगा।
वो शोर मेरी सांसो का था
और जश्न मेरे ख्वाबों का,
थोड़ी दूर पर ज़िन्दगी खड़ी थी,
और मानो वक़्त ने पहली दफा
फ़ुरसत ली थी,
बस कुछ बहुत सुंदर सवाल
मेरे आगे तैर रहे थे,
जिनका जवाब जानने की
मुझे कोई उत्सुकता नहीं थी|
एक सुंदर एहसास हवा बनकर
मेरे इर्द गिर्द घूम रहा था,
जैसे वो मेरे लिए हैं
मगर मेरा नहीं है,
हर शोर से दूर,
हर ख्वाब से दूर,
ज़िन्दगी ने मुझे गले लगा लिया | |
Monday, 5 October 2020
एक तारा !
![]() |
| JNU Campus, Delhi |
विरहा में एक तारा,
नींद चैन का मारा,
चाँद से हरदम ही हारा,
था टूट गया बेचारा |
बनु चाँद सा आशा थी,
विफलता की निराशा थी,
चाँद का गम वो जान ना पाया,
टूट गया तब समझ में आया |
*(अब तारा चाँद के लिए कहता है )*
वो ढूंढ़ता है साथी हरदम,
मैं पला बड़ा हूँ मंडल मे,
विष समझ ठुकरा दिया,
पर अमृत था कमण्डल मे |
ले रोशनी उधार की उसे,
हर रोज निकलना पड़ता है,
इस मजबूरी के चक्र मे,
हर रोज बदलना पड़ता है |
भले, मूक गगन का गीत है वो,
युगो-युगो की रीत है वो,
पूर्णिमा का श्रंगार भी वो है,
पर, अमावस का अँधकार भी वो है |
एक पल भी मैं जी न पाया,
जीता रहा मैं चाँद को,
काश खुद को जाना होता,
अब जो मिला हूँ मुझसे मैं,
कोई गम नहीं है हिस्से मे,
अब मौत को भी जी रहा हूँ मैं,
ए-ज़िन्दगी तुझसे अब मिला हूँ मैं,
ए-ज़िन्दगी तुझसे अब मिला हूँ मैं |
मेरी रातें कुछ कहती है सुबह से !
मेरी रातें कुछ कहती है सुबह से…
कि तू कितना भी इतराले रौशनी पर अपनी,
मगर तू दिखा नहीं सकती वो लब्ज़ बेजुबां से…
वो ज़ुबान सिर्फ मैं जानती हूँ |
मेरी रातें कुछ कहती है सुबह से…
मैं पर्दा करती हूँ तो तू हटाती है,
जैसे कोई जुस्तजू है ख़ुदा की,
मगर तू दिखा नहीं सकती वो जज़्बात हवा से…
जो इन पर्दो में झूलते है,
वो एहसास सिर्फ मैं जानती हूँ |
मेरी रातें कुछ कहती है सुबह से…
खामोश कौन है, मैं या तू ?
अक्सर ज़ुबान की बातें सुनती है तू,
मगर मेरी आगोश में तो दिल भी बातें करते है,
वो बातें सिर्फ मैं जानती हूँ |
हर रोज नए सितारे आते है,
मेरे जहाँ में तेरे जहाँ से,
उन सितारों पर हक़ तेरा भी है,
मगर उन्हें सिर्फ मैं पहचानती हूँ,
मेरी रातें कुछ कहती है सुबह से… | |
Wednesday, 30 September 2020
मन का कुआँ
Tuesday, 29 September 2020
चल जज़्बात बेचते है !
चल जज़्बात बेचते है,
कल तक कौन रुके?
इन्हें आज बेचते है।
रख ' कल ' को गिरवी,
अपना ' आज ' बेचते है।
सवेरे तो बिक ही चुके है सभी के,
जो रातें रह गई है,
वो रात बेचते है |
बहुत कुछ बिक चुका,
अब बहुत कम बाकी है,
जो बिका, जो बचा,
उसका हिसाब कौन रखे,
चल सब बेहिसाब बेचते है |
जो ख़्वाब अमर रहे है हमेशा,
अब उनका यहां काम ही क्या है,
चल वो ख़्वाब बेचते है।
पंखो की कीमत तो लग ही चुकी है,
एक आसमां बचा है यहां,
चल वो आसमां बेचते है |
अपने ज़मीर का कपड़ा बिछाकर,
कुछ उम्मीद रखलो..
कुछ बेबसी..
बातो के खिलौने रखलो..
और अपनी हर हंसी..
वो गम के टुकड़े भी
जो कभी बटें नहीं..
एक ज़िंदा टीस..
जो कभी मिटी नहीं..
अपनी हर सांस..
और तुम खुद।
सब बिकता है संसार के मेले में,
आओ इन्हें सरेआम बेचते है,
चल जज़्बात बेचते है | |
Monday, 7 September 2020
माँ !
वो ठहरा हुआ कैसे है?
Monday, 10 August 2020
काल कोठरी
जब मैं उस अँधेरी काल कोठरी में जाकर खड़ा हुआ तो जो पहले गुप् अँधेरा लग रहा था उसमे मैं आकृतियां भांप पा रहा था। जो कोठरी दूर से इतनी गहरी लग रही थी की मानो मैं इसमें जाऊ तो शयद अपने आप को ही न खो दूँ। मगर उसमे प्रवेश करते ही मैं उसी का हिस्सा बन गया था। मैं देख पा रहा था की वहां सिर्फ डर नहीं था बल्कि ऐसे ढेर सारे एहसास थे जो मैने कभी न कभी महसूस किये हो। उस डर का पल्लू मेरी महत्वकांक्षाओं से बंधा हुआ था। ऐसे ही हर जज़्बात किसी न किसी दूसरे जज़्बात के साथ वहां पल्लू में बंधा था। जैसे दुःख का पल्लू सुख से, बेबसी का परिपूर्णता से, दया का संवेदना से, सकारात्मकता का नकारात्मकता से, और भी बहुत सारे। हर कोई आपस में बंधा है और एक दूसरे की नज़र में एक दूसरे के बंदी है। वे नही जानते के किसने किसको बंदी बना रखा है, महत्वकांक्षाओं ने डर को या डर ने महत्वकांक्षाओ को। वे उस कोठरी से निकल कर बाहर आना तो चाहते है मगर आज़ाद होने का रास्ता नहीं जानते। कभी भूले बिसरे कोई जज़्बात बाहर आकर रौशनी में खड़ा हो भी जाए तो दूसरा पल्लू पकड़ कर उसे वापस अँधेरे में खींच लेता है। असल में ये पल्लू समाज की रूढ़ियों ने हमे दिया है और हम ही है जिसने इन जज़्बातो को पल्लू पकड़ाया एक दूसरे को बाँधने के लिए। अगर हम ये पल्लू इनसे छीन कर फेक दे और उन्हें रौशनी में आने पर सहज एह्साह करवाए तो ये सारे जज़्बात आज़ाद हो जाएंगे। फिर कोई किसी को बाँधेगा या खीचेगा नहीं। हमारी महत्वकांक्षाओ की पतंग फिर किसी डर में लिपट कर नहीं उड़ रही होगी। हर जज़्बात खुद को हल्का महसूस करेगा।














