Monday, 2 December 2024

मैं गुनहगार हूं।

मैं गुनहगार हूं,
बेशक तुम भी हो,
मेरे गुनाहों में तुम्हारी 
पूर्ण भागीदारी है,
और तुम्हारे में मेरी,
हम बुद्धिजीवियों की बुद्धि
सिर्फ यहीं तक सीमित है
कि अपने लिए मनोरंजन
और सुविधाएं कहां से बटोर सके,
इससे ऊपर की बातें सब ढोंग है,
हम अंधे हो चुके है
हम देख नही सकते की हमारे आस पास
हमारे अलावा कौन खुश है,
खैर प्रकृति और अन्य जीवों 
के इतने शोषण करने के बावजूद भी
पूर्णत खुश तो हम भी नही है!
कितने घर उजाड़ कर 
एक नींव रखी है हमने,
किसी का घोंसला 
हमे कूड़ा लगता है,
सरेआम कोई जानवर कचरा
खा कर मर जाता है
हमे ये आम लगता है,
प्रकृति हमारे साथ एक तरफा
रिश्ता निभा रही है,
हमारी पूरी मानव जाति
एक तरफे रिश्ते की बुनियाद पर टिकी है,
हम सभी जन्मजात अपराधी है,
और इसका कलंक हमारे चेहरे
से कोई नही मिटा सकता।

एक कविता कहनी है मुझे

एक कविता कहनी है मुझे,
जो बेबाकी से बहे,
अधर से चिपक अंतिम
उड़ान भरे,
जो एक कतार में वादियों
में कूद जाए,
कंचन अलंकार चुराकर
आसमां को चिढ़ाए,
जो कहनी है उसे
वो हर बात कहे,
एक कविता कहनी है मुझे,
जो बेबाकी से बहे।
जो मुक्त हो भय से
अस्तित्व के,
जो ज्यों की त्यों आंखो
में उतर जाए,
पतझड़ के पत्तो सी छूने
से बिखर जाए,
जो गढ़नी है उसे
वो हर बात गढ़े,
एक कविता कहनी है मुझे
जो बेबाकी से बहे।

खुशबू

मुझे खुशबू आती है
बीते हुए कल की,
बार बार, 
वो मुझे खीच लेती है
अपनी तरफ
जैसे आज है ही नहीं,
जैसे सत्य सिर्फ कल में छिपा है
एहसासों से भरपूर,
जिसे महसूस करते ही मैं 
छू लूंगा आखिरी छोर को,
पुरानी धूप की खुशबू,
पहली बार कुछ घटने पर
अंदरूनी खुशी की खुशबू,
कुछ आवाजों की खुशबू,
नितांत एकांत की खुशबू,
खुशबू उस शाम की
जो कभी बीती ही नहीं,
खुशबू उस रात की
जो ख्वाब बिना ही बीत गई,
ये अनंत खुशबू,
ये खुशबू ही प्रमाण है
कि हम कभी थे
पूर्ण रूप से थे,
किंतु ये एहसास लघु है,
देखते ही देखते
मैं मृग हो जाऊंगा,
और ये खुशबू कस्तूरी,
और जीवन रूपी जंगल 
में मैं तलाश में रहूंगा
सिर्फ खुशबू के
जिसका स्त्रोत मैं खुद हूं।



कहानी की तरह

एक फिक्र में डूबा चांद,
एक जलता हुआ गुमान,
अश्कों से भरा आसमान,
ईंटो का खाली मकान,
सब छोड़ दिया जाएगा
पानी की तरह,
मुझे इल्म है,
सब गढ़ा जाएगा फिर से
कहानी की तरह।
वो कहानी फिर वैसी ना होगी,
जो सोची गई थी,
वो लिखी जाएगी सच की कलम से,
गंदी, घिनौनी, मुंह फेर लेने लायक,
वो होगी सबकी कहानी,
मेरी, तुम्हारी, और सबसे ज्यादा उनकी 
जिन्होंने बोला झूठ खुद से,
मिला जब भी मौका
मुंह फेर लिया गया,
आंखें मूंद ली गईं
एक फरेब के पीछे।
मुझे ये भी इल्म है,
बिना वस्त्रों के खड़ी कहानी भी 
बन कर रह जाएगी बस कहानी।
वो चढ़ा दी जाएगी खुलेआम 
उसूलों की फांसी पर
किसी कुर्बानी की तरह,
वो पढ़ी जाएगी फिर से
बस कहानी की तरह।

Saturday, 30 November 2024

जीवन और त्रासदी

नन्ही सी आँखें
जब बड़े सपने देखती है,
वो सपना नहीं जीवन होता है,
पलके हल्की होने लगती है,
नजरें आसमां को भेद रही होती है,
मृत पड़ी आंखे चमक उठती है,
उन चमकती आंखों में 
जीवन पनपता है,
ये महान दृश्य
कभी कभी घटता है।

वही नन्ही सी आँखें,
जब सपने देखना छोड़ देती है,
वो कृत नहीं मृत होती है,
पलके भारी होने लगती है,
कांधे टूटने लगते है,
नजरों की धार खोने लगती है,
वो चमक गुम होने लगती है,
वो गहरी आँखें
जो समस्त संसार को समेट सकती है,
जो जीवन को भी भेद सकती है,
उन बेजान आंखों से
टपकती है त्रासदी,
त्रासदी जो जीवन में 
स्याह रंग भरती है,
इस इंतजार में कि कभी
इस पर सपनो की चमक गिरेगी,
और ऐसा लगेगा जैसे
तारे पिघल कर आँखों में
उतर आए हो।

Thursday, 20 July 2023

किताबें और विचार

 


महीनो तक किताबे ख़ाक छानती रहीं और मेरे विचार भी। जीवन जैसे एक मोड़ पर आकर स्थिर बीतते रहना चाहता था। स्थिरता में अंधेरा ज्यादा महफूज़ लगता है और अंधेरे में वक्त स्थिर होने का एहसास कराता है। इसीलिए जीवन से नोक झोंक किए बगैर मैने कमरे को अंधेरे से भर लिया था। किताबों की अलमारी अंधेरे में भी एक सुंदर आकृति बना रही थी। अचानक मैने महसूस किया कि किताबो के अंधेरे पन्नो में पड़े शब्द अंकुरित हो उठे थे और किताबों के बीच में से बहुत सारे फूल बाहर आने लगे। किसी भी फूल में कोई रंग नही था, सब काले थे। सब एक बराबर भी नही थे, कोई बड़ा तो कोई छोटा। मैं इस घटना को समझ पाता कि इतने में उन फूलों ने एक साथ बड़बड़ाना शुरू कर दिया। वह कुछ कह रहे थे मगर शोरगुल में वो सारे शब्द समुद्र की लहरों की तरह तीतर बितर हो रहे थे, उनको समझ पाना मुश्किल था जैसे ख़ाक छानते मेरे विचारो को समझना। गौर करने पर समझ आया की हर फूल बार बार एक ही शब्द दोहरा रहा है।  मैने जिज्ञासा में एक फूल को छू लिया, एकदम से सभी फूलों ने बड़बड़ाना बंद कर दिया। मैने उसी फूल को फिर से छुआ तो वह बोला "प्यार"। दूसरा बोला "इच्छाएं", तीसरा "दर्द", चौथा "खुशी"... "लालच", "जलन", "गुस्सा", "मजबूरी"... और ना जाने क्या क्या। तब मुझे पता चला कि ये फूल उस एहसास को दोहरा रहे है जिस एहसास के शब्द से ये अंकुरित हुए थे और फिर फूल में तब्दील हो गए थे। फिर सभी फूल वापस किताबों के अंधेरे में गुम होने लगे। मैने उसी वक्त एक किताब उठाई और लैंप जलाकर पढ़ने लगा और देखते ही देखते मेरे ख़ाक छानते विचारों को भी मिल गया था... उनका घर।


Tuesday, 2 August 2022

प्रतिमाएं

जो प्रतिमाएं बड़े सम्मान से खड़ी की गई है किसी के सम्मान में, मैं उनमें विचार भरना चाहता हूं। नहीं तो यह कितनी दिल जलाने वाली बात है कि वह महान व्यक्ति जिसके लिए लाखों किताबें स्याह कर दी गई हो, उस महान व्यक्ति की प्रतिमा एकदम आम तरीके से सबके बीच से निकल जाती हो। जैसे कोई अनजान व्यक्ति आंखों के आगे से गुजर जाता है, जिसको देखकर हमें कुछ महसूस नहीं होता। और जैसे वह प्रतिमा मात्र भीड़ का एक हिस्सा है और हम भी। वह भीड़ जो हम से बनी हैं और जिसकी शक्ल और विचार हमसे मिलते हैं। प्रतिमाएं भीड़ में कब तब्दील हो जाती हैं पता ही नहीं चलता। फिर उस प्रतिमा की शक्ल और विचार भी भीड़ से मिलने लगते है और उसमें अब महान जैसा कुछ शेष नहीं रह जाता। वह कितनी बेजान तरीके से खड़ी रहती है या यूं कहो की भीड़ कितनी बेजान आंखों से उसके पास से गुजर जाया करती है। इसलिए मैं उन सभी प्रतिमाओं में विचार भरना चाहता हूं। मगर यदि सच में कोई प्रतिमा बोल उठे और विचार प्रकट करने लगे तो क्या भीड़ की बेजान आंखों में जान लौट आएगी? शायद हां, मगर थोड़ी देर के लिए और कुछ ही देर में हम फिर से उसे बेजान प्रतिमा बना देंगे। अब किसी प्रतिमा के आगे से गुजरता हूं तो उसे देर तक निहारता हूं, उसका विचार प्रकट करना मेरी आंखों के जीवित होने का प्रमाण होता है।

Monday, 16 May 2022

थोड़ा आसमां



चलो अपना अपना एक आसमां चुनते है,
एक आसमां तुम्हारा होगा,
और एक आसमां मेरा,
तुम्हारे आसमां और मेरे आसमां
में कोई ज्यादा फर्क नहीं है
वह एक जैसे ही है,
सिवाय इसके की
इन आसमानों का विभाजन हो चुका है,
अब इन्हें असहमिय पीड़ा के साथ
हमे इन्हें खुद में बांटना होगा,
हम हर आसमां नही चुन सकते
उन्हें एक भी नही समझ सकते,
ये आज़ादी हर किसी से छीन ली गई है,
तुम थोड़ा थोड़ा हर कुछ होकर
अजीबो-गरीब लगोगे सबको,
तुम्हे एक होना होगा,
पूरा एक,
थोड़ा थोड़ा सब नही,
और वो भी "एक" आसमां के नीचे,
फिर चाहे आसमानों के विभाजन में 
विभाजित हो जाए हम सब भी।

अव्यक्त



एक बची हुई नींद तुम्हारी, 
एक सुबह की सरसरी ठंड, 
एक बची हुई खामोशी, 
और कभी ना गिरने वाला आँसू, 
ये सब दफ्न है बस एक परत नीचे। 
वो ज्यादा गहरे दफ्न नहीं है, 
बस एक परत नीचे। 

असल में सब महसूस होना कोई बड़ी बात नही है, 
बस खूबसूरत बात है। 
मगर परत उनको ढके रखती है, 
और हमको एहसास दिलाती है की हम अलग दुनिया के लायक है, 
नाकि इस दुनिया के जो दफ्न है,
बस एक परत नीचे। 

और जब कभी भी परत हटती है, 
तो सारे भाव एकसाथ चेहरे पर उतर जाते है, 
तुम्हारी बची हुई नींद का कुछ हिस्सा मैं सो लेता हूं, 
सरसरी ठंड मेरे कंधे पर बैठ जाती है, 
खामोशी और गहरी होने लगती है, 
कभी ना गिरने वाला आँसू अब गिरता है, 
अंततः जीवन होने का अर्थ समझ आने लगता है।

Thursday, 16 September 2021

हिचकी !




बचपन में जब कभी हिचकी खूब सताती थी तो कहा जाता था कि कोई अपना तुम्हे बहुत दिल से याद कर रहा है। साथ ही उसको रोकने के उपाय भी बताए जाते थे जैसे कि अपने प्रिय लोगो के नाम लो जो कोई भी तुम्हें याद कर रहा है। अगर उसका नाम ले लोगे तो हिचकी रुक जाएगी। और इसी खेल खेल में दो चार नाम लेने के बाद हिचकी रुक भी जाय करती थी। तब यह किसी जादू से कम नहीं लगता था। उस वक़्त जिस नाम से हमें सबसे ज्यादा उम्मीद होती थी कि वह व्यक्ति हमें याद कर रहा होगा, उसका नाम लेने की पश्चात् हम थोड़ा ठहरते थे, कभी सफलता हाथ लगती थी तो कभी नहीं। मगर एक मुस्कान चेहरे पर बैठी रहती थी। अब इतने सालो बाद कब ये खेल आदत में तब्दील हो गया, इसका पता ही नहीं चला। हिचकियां अब ज्यादा दुखी नहीं करती। और कभी करती भी है तो मन आदतन खुद ब खुद कुछ नाम दोहराना शुरू कर देता है, मगर ज्यादातर अंत में पानी पीकर ही इससे पीछा छुड़ाना पड़ता है। इससे बचपन के विश्वास पर गहरा आघात तो होता है पर इससे पहले कि वो विश्वास दगमगा कर पूरी तरह गिर जाए, कुछ सफलताएं आकर उस आदत को बने रहने का बहाना दे जाती हैं।
आज सुबह से हिचकी बहुत दुखी कर रही है। बाकी कार्य रोजमर्रा की तरह घटित हो रहे है। बस घर में थोड़ी ज्यादा शांति है। मां की आंखो में एक अलग सी स्थिरता है जैसे वह कहीं गुम हो चुकी है। वो शायद इसीलिए भी क्यूंकि कल में कुछ महीनों के लिए घर से दूर चला जाऊंगा। जब हमे पता होता है कि कोई अपना जाने को है और कल वो हमसे थोड़ा दूर होगा। तो हम आज की बजाए कल में प्रवेश कर जाते है। हम इस विचार में गुम रहते है कि कल उसके जाने के पश्चात उसकी कितनी याद आएगी। हम उस याद को याद करते है जो हमें कल आने वाली है जब वह कोई अपना चला जाएगा। और हम आज में रहकर भी उस क्षण में होते है जब वह व्यक्ति जा चुका है और हम उसकी याद में डूबे है। बल्कि आज उसके साथ रहकर भी हम उसी को याद कर रहे होते है। कितना खूबसूरत अपनापन है इसमें। घर में जो अतिरिक्त शांति बिखरी पड़ी है उसका स्त्रोत मां के चेहरे पर कहीं है। इन सब विचारों के बीच मैने एहसास किया की मां मेरे सामने पानी का ग्लास लेकर खड़ी है। मेरे मुंह से निकला ' मां ' , मैं थोड़ा ठहरा और हिचकी रुक गई।

Monday, 24 May 2021

तला और आसमां !



एक तला है समतल सा 

दूर दूर तक सीधी ज़मीन,

जिससे भयंकर तपिश बहती है,

मानो उसके गर्भ की अग्नि

आजाद होना चाहती है,

उसका रूप उग्र है क्यूंकि

वो अनंत भूख की अग्नि है,

उस तले में जगह जगह

तरेड़ो ने रेखाएं बना ली है,

उसमे कोई कान लगाए तो

वो विलाप की चीखे सुन सकता है।


इन सबके ठीक ऊपर

मगर बहुत दूर,

एक खुला आसमां है,

देखने में शांत और आशावादी,

वहां तक तपिश अलग रूप

में पहुंचती है एकदम ठंडी,

वो उग्र भाव मर चुका होता है,

उस आसमां की अपनी अलग भूख है,

वो सांसों का भूखा है,

उनसे ही वो ज़िंदा है और 

उसकी शोभा है,

वहां विलाप नहीं बस सन्नाटा है।


तले को मृग तृष्णा है कि

वो आसमां से मिल सकता है,

ये वहम आसमां को नहीं है

उसे सब साफ नज़र आता है,

दोनों अपनी अनंत भूख

मिटाने में व्यस्त है,

और दोनों के बीच एक 

अनादि मूक संवाद स्थापित है,

जिसका उन्हें कोई ज्ञात नहीं,

दोनों एक दूसरे को निहार रहे है

बस आंखो में गहरी उम्मीद लिए।। 

Tuesday, 27 October 2020

मैं टूट कर बिखर जाऊ !

 



मैं टूट कर बिखर जाऊ,

फिर कतरा कतरा छनु ,

जैसे मिट्टी में चूर,

खुद को ही स्पर्श करू|

मैं बट जाऊ टुकड़ों में,

फिर कोई वजूद ना हो,

अनगिनत रंग समेटु,

मीठी सी खुशबू लिए,

मैं किरणों मे लिपट जाऊ,

फिर हर हलचल पर मचलु,

अग्नि से भी तेज जलू,

हर आरज़ू आखिरी सांस ले|

मैं फिर निखरू ऐसे,

जैसे भव्य गाथा का

आगाज़ हुआ हो,

कतरा कतरा फिर बनूं

जैसे ज़िन्दगी का

एहसास हुआ हो ||


Saturday, 10 October 2020

ख़्वाब !



मैं मुड़ा,

मेरी आँखे स्थिर थी,

मेरा मन और पैर दोनों 

एक समान थे, 

एकदम स्तब्ध...!!


मुड़ने से पहले मैं कुछ

निहार रहा था,

वहाँ शोर था,

बहुत शोर,

जैसे कोई जश्न हो,

मुड़ते ही,

वो शोर कम हो गया,

कुछ कदम बढ़ाए

तो शोरगुल गहरे सन्नाटे

में तब्दील होने लगा।


वो शोर मेरी सांसो का था

और जश्न मेरे ख्वाबों का,

थोड़ी दूर पर ज़िन्दगी खड़ी थी,

और मानो वक़्त ने पहली दफा

फ़ुरसत ली थी,

बस कुछ बहुत सुंदर सवाल

मेरे आगे तैर रहे थे,

जिनका जवाब जानने की 

मुझे कोई उत्सुकता नहीं थी|


एक सुंदर एहसास हवा बनकर

मेरे इर्द गिर्द घूम रहा था,

जैसे वो मेरे लिए हैं

मगर मेरा नहीं है,

हर शोर से दूर,

हर ख्वाब से दूर,

ज़िन्दगी ने मुझे गले लगा लिया | |


Monday, 5 October 2020

एक तारा !

JNU Campus, Delhi

विरहा में एक तारा,
नींद चैन का मारा,
चाँद से हरदम ही हारा,
था टूट गया बेचारा |

बनु चाँद सा आशा थी,
विफलता की निराशा थी,
चाँद का गम वो जान ना पाया,
टूट गया तब समझ में आया |

*(अब तारा चाँद के लिए कहता है )*

वो ढूंढ़ता है साथी हरदम,
मैं पला बड़ा हूँ मंडल मे,
विष समझ ठुकरा दिया,
पर अमृत था कमण्डल मे |

ले रोशनी उधार की उसे,
हर रोज निकलना पड़ता है,
इस मजबूरी के चक्र मे,
हर रोज बदलना पड़ता है |

भले, मूक गगन का गीत है वो,
युगो-युगो की रीत है वो,
पूर्णिमा का श्रंगार भी वो है,
पर, अमावस का अँधकार भी वो है |

एक पल भी मैं जी न पाया,
जीता रहा मैं चाँद को,
काश खुद को जाना होता,
तो जी लेता ब्रह्मांड को | 

अब जो मिला हूँ मुझसे मैं,

कोई गम नहीं है हिस्से मे,
अब मौत को भी जी रहा हूँ मैं,
ए-ज़िन्दगी तुझसे अब मिला हूँ मैं,
ए-ज़िन्दगी तुझसे अब मिला हूँ मैं | 


मेरी रातें कुछ कहती है सुबह से !

Arts Faculty, Delhi

मेरी रातें कुछ कहती है सुबह से…

कि तू कितना भी इतराले रौशनी पर अपनी,

मगर तू दिखा नहीं सकती वो लब्ज़ बेजुबां से…

वो ज़ुबान सिर्फ मैं जानती हूँ | 


मेरी रातें कुछ कहती है सुबह से…

मैं पर्दा करती हूँ तो तू हटाती है,

जैसे कोई जुस्तजू है ख़ुदा की,

मगर तू दिखा नहीं सकती वो जज़्बात हवा से… 

जो इन पर्दो में झूलते है,

वो एहसास सिर्फ मैं जानती हूँ | 


मेरी रातें कुछ कहती है सुबह से… 

खामोश कौन है, मैं या तू ?

अक्सर ज़ुबान की बातें सुनती है तू,

मगर मेरी आगोश में तो दिल भी बातें करते है,

वो बातें सिर्फ मैं जानती हूँ | 


हर रोज नए सितारे आते है,

मेरे जहाँ में तेरे जहाँ से,

उन सितारों पर हक़ तेरा भी है,

मगर उन्हें सिर्फ मैं पहचानती हूँ,

मेरी रातें कुछ कहती है सुबह से… | | 


Wednesday, 30 September 2020

मन का कुआँ

                                                                 Credit:- Well Abstract Painting of  Omaste Witkowski  Source:- www.fineartamerica.com             
 

मैंने सुना था जो बीत गया वह वापस नहीं आता| मगर मुझे लगता है कि जो बीत गया वह घूम कर वापस जरूर आता है| वह एक बार फिर तुम्हें मौका देता है उसको जीने का और खुद तुम्हारी परीक्षा लेता है कि उस वक्त में तुम कितने परिपक्व हो चुके हो| वह फिर तुम्हारी जिंदगी का कुछ हिस्सा ले जाता है हमेशा के लिए और अपना कुछ हिस्सा तुम्हे दे जाता है| जिसको तुम संभाल कर भी रख सकते हो या फिर किसी अंधेरे कुएं में उसे हमेशा हमेशा के लिए फेंक सकते हो| वहां वह किसी के हाथ नहीं लगेगा, तुम्हारे भी नहीं क्योंकि वह अंधेरे कुएं के अंदर का रास्ता ना तुमने कभी देखा है और ना ही तुम कभी उसे देखना चाहोगे| कुएं की गहराई ही उसे रहस्य में बनाती है अंधेरे के भीतर क्या छुपा है, यह हम जान नहीं सकते| लेकिन जब वह तुम्हारी फेंकी हुई चीजों से भरने लगेगा, उसकी गहराई घटकर जमीन से समतल होने लगेगी और उसमें फेंकी हुई चीजों पर सीधी रोशनी पड़ने लगेगी| उस कुएं में पानी कहीं नीचे बहुत नीचे रह चुका होगा, तब तुम्हें सब अपनी खुद की फेंकी हुई चीजें साफ साफ नजर आने लगेगी| वह सब देखकर हो सकता है तुम्हारे अंतर्मन में जज्बातों का प्रवाह सा हो जाए कुछ ऐसे जज्बात भी जिसे तुमने कभी महसूस तक नहीं किया था| तुम्हें भांति तक ना थी कि ऐसा कोई जज्बात किसी के जीवन में घर भी कर सकता है| मगर मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि उस कचरे में से जिसे तुमने बरसों पहले फेंक दिया था और भुला दिया था| उसमें से तुम्हें कुछ ना कुछ तो काम का मिलेगा ही जो तुम्हें तुम्हारी जिंदगी के कुछ ऐसे पहलू से मिलवा देगा जिसका भ्रमण तुमने पहले कभी नहीं किया था| अब उस कुएं के पास तुम बसर नहीं कर सकते| तुम चाहते हो कि वह खाली हो जाए पहले की तरह और फिर से तुम्हारे कचरे फेंकने के लिए तैयार हो जाए क्योंकि उसमें से अब सड़े गले जज्बातों की भयंकर बदबू आने लगी है जो तुमसे बिल्कुल भी  बर्दाश्त नहीं हो पा रही है| 

हर व्यक्ति एक कुए की तरह होता है| कोई ज्यादा गहरा तो कोई थोड़ा कम, किसी में गुप अंधेरा तो किसी में थोड़ी रोशनी की झलक, कोई एकदम सूखा तो कोई पानी से भरा हुआ, कोई जंजर तो कोई आलीशान| जैसे रास्ते से गुजरते वक्त अगर कोई कुआँ दिख पड़े तो अंदर से तीव्र इच्छा होने लगती है कि कम से कम एक बारी तो उस में झाँक कर देख लिया जाए| फिर हम उस में झाँकते हैं एक उम्मीद लिए कि ऐसा करने के उपरांत हमें सुकून का अहसास मिल सकता है| अगर उसकी वेशभूषा काफी आकर्षक हो और उसकी गहराई भी लाजवाब हो तो वह कुआं हमें उसे काफी देर देखते रहने पर मजबूर कर देता है| यह भी संभव है कि हम उसे मन भर कर देख लेने के बाद भी एक दो बार और देख ले|  मगर वहीं अगर हम ऐसे किसी कुएं में उम्मीद लेकर झाँखे और उसमे कचरा ऊपर तक चुका हो एवं वह एक छोटा गढ्ढा बनकर रह गया हो। तो हम अपना मन सिकोड़ कर वहाँ से आगे चल लेंगे| व्यक्तियों के संबंधों में भी कुछ ऐसा ही होता है|  हम भांति भांति के लोगो से मिलते है| किसी में हम काफी वक़्त तक झाँकते रहते है तो किसी में बस एक झलक मार के पीछे हट जाते है| असल में ये हमारी उत्सुकता है जो हमें ऐसा करने पर मजबूर कर देती है| जिस व्यक्ति में हमें गहराई प्रतीत होती है, उस गहराई को समझने की उत्सुकता हमें उससे जोड़े रखती है| उस गहराई के अंत से आता गुप अंधेरा एक रहस्य को जन्म देता है जो हमें खूबसूरत लगता है| हम उसकी हर एक आकृति को हमेशा के लिए मन में बसा लेना चाहते है मगर ऐसा करने में हम हर बारी नाकाम रहते है| इसीलिए भूले बिसरे हिस्से को फिर से जोड़ने के लिए हम नित्य उसे निहारने आ जाते है।

मगर जब उस कुएं को हम अनावश्यक चीजे से भरने लगते है तो उसकी गहराई को समझौता कर धीरे धीरे खतम होना पड़ता है| उसके धीरे धीरे मिटने की टीस उन लोगो की आंखो में साफ देखी जा सकती है जिनके दिन का अहम हिस्सा उसे निहारने में गुजरा करता था, और उससे भी कई ज्यादा उसकी आंखो में जिस पर यह सब बीत रही हो| ऐसे वक़्त में मन मचल कर उस कुएं के ही इर्द गिर्द घूमता रहता है| अब उन जज्बातों का कचरा साफ करने के दो तरीक़े है| पहला तो ये की हम खुद एक-एक चीज को हाथ से बाहर निकाल फैंके, ऐसे में हमें उन जज्बातों से फिर एकबार मुतारिफ होना पड़ेगा जिनको हमने बरसो पहले पीछे छोड़ दिया था| ऐसा करना उस घुटन से भी ज्यादा पीड़ादायक हो सकता है जो हमें पहले हो रही थी| दूसरा यह कि हम इस कदर छलक जाए कि कुएं का सारा पानी नीचे से उठकर कुएं से बाहर बहने लगे और उस सारे कचरे को समेट कर धरती की गोद में लिप्त हो जाए। ऐसा करने से वो कुआं फिरसे ज़िंदा हो उठेगा| जो आंखे उसके लिए बेचैन थी उनका पानी वाष्प बनकर हवा में उड़ जाएगा और उन्हें चैन की प्राप्ति होगी| 

जीवन एक प्रक्रिया है, जो हर थोड़े समय के बाद एक अलग रूप ले लेती है| यही उसके सौन्दर्य की सबसे महत्वपूर्ण बात है|  हमारा काम यह है कि हम उस प्रक्रिया में रंग भरते चले| जिससे उसकी खूबसूरती हम सबको साफ साफ दिखने लगे और अगली प्रक्रिया पूरी होने का सयंम हम में आ जाए| 

Tuesday, 29 September 2020

चल जज़्बात बेचते है !

 



चल जज़्बात बेचते है,

कल तक कौन रुके?

इन्हें आज बेचते है।

रख ' कल ' को गिरवी,

अपना ' आज ' बेचते है।

सवेरे तो बिक ही चुके है सभी के,

जो रातें रह गई है,

वो रात बेचते है |


बहुत कुछ बिक चुका,

अब बहुत कम बाकी है,

जो बिका, जो बचा,

उसका हिसाब कौन रखे,

चल सब बेहिसाब बेचते है |


जो ख़्वाब अमर रहे है हमेशा,

अब उनका यहां काम ही क्या है,

चल वो ख़्वाब बेचते है।

पंखो की कीमत तो लग ही चुकी है,

एक आसमां बचा है यहां,

चल वो आसमां बेचते है |


अपने ज़मीर का कपड़ा बिछाकर,

कुछ उम्मीद रखलो..

कुछ बेबसी..

बातो के खिलौने रखलो..

और अपनी हर हंसी..

वो गम के टुकड़े भी

जो कभी बटें नहीं..

एक ज़िंदा टीस..

जो कभी मिटी नहीं..

अपनी हर सांस..

और तुम खुद।

सब बिकता है संसार के मेले में,

आओ इन्हें सरेआम बेचते है,

चल जज़्बात बेचते है | |


Monday, 7 September 2020

माँ !




बहुत दूर है वो मुझसे, फिर भी 
कभी-कभी मिलने चला जाता हूँ मैं,
मगर ख्यालो मे,
क्यूँकि बहुत दूर है ना वो मुझसे | 

अक्सर आँख बंद कर,
उसकी गोद में सर रखकर सो जाता हूँ मैं,
मगर ख्वाबो मे,
क्यूँकि बहुत दूर है ना वो मुझसे | 

वो एहसास जो उस डिब्बे मे बंद है,
जो उसने मुझे दिया था घर से जाते वक़्त,
कभी-कभी उसे खोल लिया करता हूँ मैं,
कभी डर लगता है तो,
उसका नाम बोल लिया करता हूँ मैं | 

कभी दिल घबराये,
और कुछ समझ न आये,
तो उसका माथा चूम लिया करता हूँ मैं,
मगर तस्वीरो मे,
क्यूँकि बहुत दूर है ना वो मुझसे | 

सच मे माँ,
तुझे बहुत याद किया करता हूँ,
क्यूँकि बहुत दूर है ना तू मुझसे | 

_______________________________________
P.S:- लेकिन उसका एहसास और स्पर्श हमेशा मेरे साथ है,
        और यही मेरी ताकत है | 



 

वो ठहरा हुआ कैसे है?

                                            Source:New Delhi, India on 7/25/2018 © clicksabhi / Shutterstock

वो ठहरा हुआ कैसे है?
एकदम अडिग खड़ा है,
चहरे की मायूसी भी मानो 
उभरने का एहसान सा कर रही है,
मगर हाँ, कदम एकदम पक्के है,
जैसे कभी गिरेगा नहीं,
और जैसे कभी गिरा ही नहीं | 
हाथो से किस्मत गुम सी है,
आँखों में सपनो का चूरा है,
मानो उसका हर ख्वाब अधूरा है | 
मालूम पड़ता है,
उसने कदमो तले कुछ दबा रखा है | 
भला क्या?
शायद डर, सहमापन, दर्द, मजबूरी, उदासी 
एक मुठी ख़्वाहिश, और 
कुछ भी महसूस न होने का एहसास | 
मुझे हैरानियत अभी तक घेरे है कि.. 
वो ठहरा हुआ कैसे है?

Monday, 10 August 2020

काल कोठरी

 



_आज मुझे पता चला की मेरे अंदर एक अँधेरा बस्ता है। हो सकता है ये सभी में बसता हो मगर मुझे इसका आज एहसास हुआ। वह काल कोठरी सा घना काला अँधेरा..... मैं उस रास्ते कभी नहीं गया था। जैसे जन्म के पश्चात हर कोई बड़ा होता है वैसे वह भी धीरे धीरे बढ़ रहा है। उस अँधेरे ने भी पहले कभी जन्म लिया होगा मगर मुझे इसका कभी अंदाज़ा नहीं था। और शायद कभी अंदाज़ा होता भी न अगर मैं मेरे डर की एक झलक उस अँधेरे में न पाता तो। न जाने इतने घने अँधेरे में सिर्फ एक पल के लिए वो रौशनी की एक तरंग कहाँ से आयी और सीधा उस डर पर पड़ी जो मेरे से कहीं उस अँधेरे में छुपता फिर रहा था। इस घटना से पहले मैं इस कोठरी से अनजान था | उस वक़्त मुझे एहसास हुआ की मेरे जज़्बात मुझसे लुका छुपी खेलते-खेलते यहां इस अँधेरी काल कोठरी में आकर छुप जाते है। मुझे कभी नहीं पता था की यहां एक काल कोठरी भी मौजूद है, मुझे तो वह महज़ एक छोटा सा कोना लगता था जहाँ रौशनी नहीं आती बस। हम कभी-कभी ऐसे धोखे कर देते है, आँखे बहुत कुछ नहीं देख पाती है और देख भी पाती है तो कभी कभी अर्थ समझने में मात खा जाती है। वो अर्थ भी ऐसे ही किसी अँधेरे में छुपा बैठा रहता है। हालाँकि हर बार उसे ढूंढ लेना ही जरूरी नहीं होता बल्कि जरूरी ये है की हमे पता हो की वो है। बस इतना भी काफी होता है। मैं भी इसी मूर्खता में था की मेरे जज़्बात कहीं खो से गए है या सही समय पर सही जज़्बातो से मेरा पाला नहीं पड़ता। मगर मेरा जान लेना के वो है बस किसी अँधेरे में मुँह दुबकाये बैठे है, कितना जरूरी था। महज़ इस तस्सली से की वो यही है मैने कुछ नही खोया है मुझे कितना सुकून मिलता। 

जब मैं उस अँधेरी काल कोठरी में जाकर खड़ा हुआ तो जो पहले गुप् अँधेरा लग रहा था उसमे मैं आकृतियां भांप पा रहा था। जो कोठरी दूर से इतनी गहरी लग रही थी की मानो मैं इसमें जाऊ तो शयद अपने आप को ही न खो दूँ। मगर उसमे प्रवेश करते ही मैं उसी का हिस्सा बन गया था। मैं देख पा रहा था की वहां सिर्फ डर नहीं था बल्कि ऐसे ढेर सारे एहसास थे जो मैने कभी न कभी महसूस किये हो। उस डर का पल्लू मेरी महत्वकांक्षाओं से बंधा हुआ था। ऐसे ही हर जज़्बात किसी न किसी दूसरे जज़्बात के साथ वहां पल्लू में बंधा था। जैसे दुःख का पल्लू सुख से, बेबसी का परिपूर्णता से, दया का संवेदना से, सकारात्मकता का नकारात्मकता से, और भी बहुत सारे। हर कोई आपस में बंधा है और एक दूसरे की नज़र में एक दूसरे के बंदी है। वे नही जानते के किसने किसको बंदी बना रखा है, महत्वकांक्षाओं ने डर को या डर ने महत्वकांक्षाओ को। वे उस कोठरी से निकल कर बाहर आना तो चाहते है मगर आज़ाद होने का रास्ता नहीं जानते। कभी भूले बिसरे कोई जज़्बात बाहर आकर रौशनी में खड़ा हो भी जाए तो दूसरा पल्लू पकड़ कर उसे वापस अँधेरे में खींच लेता है। असल में ये पल्लू समाज की रूढ़ियों ने हमे दिया है और हम ही है जिसने इन जज़्बातो को पल्लू पकड़ाया एक दूसरे को बाँधने के लिए। अगर हम ये पल्लू इनसे छीन कर फेक दे और उन्हें रौशनी में आने पर सहज एह्साह करवाए तो ये सारे जज़्बात आज़ाद हो जाएंगे। फिर कोई किसी को बाँधेगा या खीचेगा नहीं। हमारी महत्वकांक्षाओ की पतंग फिर किसी डर में लिपट कर नहीं उड़ रही होगी। हर जज़्बात खुद को हल्का महसूस करेगा।