जब मैं उस अँधेरी काल कोठरी में जाकर खड़ा हुआ तो जो पहले गुप् अँधेरा लग रहा था उसमे मैं आकृतियां भांप पा रहा था। जो कोठरी दूर से इतनी गहरी लग रही थी की मानो मैं इसमें जाऊ तो शयद अपने आप को ही न खो दूँ। मगर उसमे प्रवेश करते ही मैं उसी का हिस्सा बन गया था। मैं देख पा रहा था की वहां सिर्फ डर नहीं था बल्कि ऐसे ढेर सारे एहसास थे जो मैने कभी न कभी महसूस किये हो। उस डर का पल्लू मेरी महत्वकांक्षाओं से बंधा हुआ था। ऐसे ही हर जज़्बात किसी न किसी दूसरे जज़्बात के साथ वहां पल्लू में बंधा था। जैसे दुःख का पल्लू सुख से, बेबसी का परिपूर्णता से, दया का संवेदना से, सकारात्मकता का नकारात्मकता से, और भी बहुत सारे। हर कोई आपस में बंधा है और एक दूसरे की नज़र में एक दूसरे के बंदी है। वे नही जानते के किसने किसको बंदी बना रखा है, महत्वकांक्षाओं ने डर को या डर ने महत्वकांक्षाओ को। वे उस कोठरी से निकल कर बाहर आना तो चाहते है मगर आज़ाद होने का रास्ता नहीं जानते। कभी भूले बिसरे कोई जज़्बात बाहर आकर रौशनी में खड़ा हो भी जाए तो दूसरा पल्लू पकड़ कर उसे वापस अँधेरे में खींच लेता है। असल में ये पल्लू समाज की रूढ़ियों ने हमे दिया है और हम ही है जिसने इन जज़्बातो को पल्लू पकड़ाया एक दूसरे को बाँधने के लिए। अगर हम ये पल्लू इनसे छीन कर फेक दे और उन्हें रौशनी में आने पर सहज एह्साह करवाए तो ये सारे जज़्बात आज़ाद हो जाएंगे। फिर कोई किसी को बाँधेगा या खीचेगा नहीं। हमारी महत्वकांक्षाओ की पतंग फिर किसी डर में लिपट कर नहीं उड़ रही होगी। हर जज़्बात खुद को हल्का महसूस करेगा।

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