Monday, 10 August 2020

काल कोठरी

 



_आज मुझे पता चला की मेरे अंदर एक अँधेरा बस्ता है। हो सकता है ये सभी में बसता हो मगर मुझे इसका आज एहसास हुआ। वह काल कोठरी सा घना काला अँधेरा..... मैं उस रास्ते कभी नहीं गया था। जैसे जन्म के पश्चात हर कोई बड़ा होता है वैसे वह भी धीरे धीरे बढ़ रहा है। उस अँधेरे ने भी पहले कभी जन्म लिया होगा मगर मुझे इसका कभी अंदाज़ा नहीं था। और शायद कभी अंदाज़ा होता भी न अगर मैं मेरे डर की एक झलक उस अँधेरे में न पाता तो। न जाने इतने घने अँधेरे में सिर्फ एक पल के लिए वो रौशनी की एक तरंग कहाँ से आयी और सीधा उस डर पर पड़ी जो मेरे से कहीं उस अँधेरे में छुपता फिर रहा था। इस घटना से पहले मैं इस कोठरी से अनजान था | उस वक़्त मुझे एहसास हुआ की मेरे जज़्बात मुझसे लुका छुपी खेलते-खेलते यहां इस अँधेरी काल कोठरी में आकर छुप जाते है। मुझे कभी नहीं पता था की यहां एक काल कोठरी भी मौजूद है, मुझे तो वह महज़ एक छोटा सा कोना लगता था जहाँ रौशनी नहीं आती बस। हम कभी-कभी ऐसे धोखे कर देते है, आँखे बहुत कुछ नहीं देख पाती है और देख भी पाती है तो कभी कभी अर्थ समझने में मात खा जाती है। वो अर्थ भी ऐसे ही किसी अँधेरे में छुपा बैठा रहता है। हालाँकि हर बार उसे ढूंढ लेना ही जरूरी नहीं होता बल्कि जरूरी ये है की हमे पता हो की वो है। बस इतना भी काफी होता है। मैं भी इसी मूर्खता में था की मेरे जज़्बात कहीं खो से गए है या सही समय पर सही जज़्बातो से मेरा पाला नहीं पड़ता। मगर मेरा जान लेना के वो है बस किसी अँधेरे में मुँह दुबकाये बैठे है, कितना जरूरी था। महज़ इस तस्सली से की वो यही है मैने कुछ नही खोया है मुझे कितना सुकून मिलता। 

जब मैं उस अँधेरी काल कोठरी में जाकर खड़ा हुआ तो जो पहले गुप् अँधेरा लग रहा था उसमे मैं आकृतियां भांप पा रहा था। जो कोठरी दूर से इतनी गहरी लग रही थी की मानो मैं इसमें जाऊ तो शयद अपने आप को ही न खो दूँ। मगर उसमे प्रवेश करते ही मैं उसी का हिस्सा बन गया था। मैं देख पा रहा था की वहां सिर्फ डर नहीं था बल्कि ऐसे ढेर सारे एहसास थे जो मैने कभी न कभी महसूस किये हो। उस डर का पल्लू मेरी महत्वकांक्षाओं से बंधा हुआ था। ऐसे ही हर जज़्बात किसी न किसी दूसरे जज़्बात के साथ वहां पल्लू में बंधा था। जैसे दुःख का पल्लू सुख से, बेबसी का परिपूर्णता से, दया का संवेदना से, सकारात्मकता का नकारात्मकता से, और भी बहुत सारे। हर कोई आपस में बंधा है और एक दूसरे की नज़र में एक दूसरे के बंदी है। वे नही जानते के किसने किसको बंदी बना रखा है, महत्वकांक्षाओं ने डर को या डर ने महत्वकांक्षाओ को। वे उस कोठरी से निकल कर बाहर आना तो चाहते है मगर आज़ाद होने का रास्ता नहीं जानते। कभी भूले बिसरे कोई जज़्बात बाहर आकर रौशनी में खड़ा हो भी जाए तो दूसरा पल्लू पकड़ कर उसे वापस अँधेरे में खींच लेता है। असल में ये पल्लू समाज की रूढ़ियों ने हमे दिया है और हम ही है जिसने इन जज़्बातो को पल्लू पकड़ाया एक दूसरे को बाँधने के लिए। अगर हम ये पल्लू इनसे छीन कर फेक दे और उन्हें रौशनी में आने पर सहज एह्साह करवाए तो ये सारे जज़्बात आज़ाद हो जाएंगे। फिर कोई किसी को बाँधेगा या खीचेगा नहीं। हमारी महत्वकांक्षाओ की पतंग फिर किसी डर में लिपट कर नहीं उड़ रही होगी। हर जज़्बात खुद को हल्का महसूस करेगा।  


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