Monday, 5 October 2020

एक तारा !

JNU Campus, Delhi

विरहा में एक तारा,
नींद चैन का मारा,
चाँद से हरदम ही हारा,
था टूट गया बेचारा |

बनु चाँद सा आशा थी,
विफलता की निराशा थी,
चाँद का गम वो जान ना पाया,
टूट गया तब समझ में आया |

*(अब तारा चाँद के लिए कहता है )*

वो ढूंढ़ता है साथी हरदम,
मैं पला बड़ा हूँ मंडल मे,
विष समझ ठुकरा दिया,
पर अमृत था कमण्डल मे |

ले रोशनी उधार की उसे,
हर रोज निकलना पड़ता है,
इस मजबूरी के चक्र मे,
हर रोज बदलना पड़ता है |

भले, मूक गगन का गीत है वो,
युगो-युगो की रीत है वो,
पूर्णिमा का श्रंगार भी वो है,
पर, अमावस का अँधकार भी वो है |

एक पल भी मैं जी न पाया,
जीता रहा मैं चाँद को,
काश खुद को जाना होता,
तो जी लेता ब्रह्मांड को | 

अब जो मिला हूँ मुझसे मैं,

कोई गम नहीं है हिस्से मे,
अब मौत को भी जी रहा हूँ मैं,
ए-ज़िन्दगी तुझसे अब मिला हूँ मैं,
ए-ज़िन्दगी तुझसे अब मिला हूँ मैं | 


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