एक तला है समतल सा
दूर दूर तक सीधी ज़मीन,
जिससे भयंकर तपिश बहती है,
मानो उसके गर्भ की अग्नि
आजाद होना चाहती है,
उसका रूप उग्र है क्यूंकि
वो अनंत भूख की अग्नि है,
उस तले में जगह जगह
तरेड़ो ने रेखाएं बना ली है,
उसमे कोई कान लगाए तो
वो विलाप की चीखे सुन सकता है।
इन सबके ठीक ऊपर
मगर बहुत दूर,
एक खुला आसमां है,
देखने में शांत और आशावादी,
वहां तक तपिश अलग रूप
में पहुंचती है एकदम ठंडी,
वो उग्र भाव मर चुका होता है,
उस आसमां की अपनी अलग भूख है,
वो सांसों का भूखा है,
उनसे ही वो ज़िंदा है और
उसकी शोभा है,
वहां विलाप नहीं बस सन्नाटा है।
तले को मृग तृष्णा है कि
वो आसमां से मिल सकता है,
ये वहम आसमां को नहीं है
उसे सब साफ नज़र आता है,
दोनों अपनी अनंत भूख
मिटाने में व्यस्त है,
और दोनों के बीच एक
अनादि मूक संवाद स्थापित है,
जिसका उन्हें कोई ज्ञात नहीं,
दोनों एक दूसरे को निहार रहे है
बस आंखो में गहरी उम्मीद लिए।।

सटीक तथा बहुत सुन्दर.
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