महीनो तक किताबे ख़ाक छानती रहीं और मेरे विचार भी। जीवन जैसे एक मोड़ पर आकर स्थिर बीतते रहना चाहता था। स्थिरता में अंधेरा ज्यादा महफूज़ लगता है और अंधेरे में वक्त स्थिर होने का एहसास कराता है। इसीलिए जीवन से नोक झोंक किए बगैर मैने कमरे को अंधेरे से भर लिया था। किताबों की अलमारी अंधेरे में भी एक सुंदर आकृति बना रही थी। अचानक मैने महसूस किया कि किताबो के अंधेरे पन्नो में पड़े शब्द अंकुरित हो उठे थे और किताबों के बीच में से बहुत सारे फूल बाहर आने लगे। किसी भी फूल में कोई रंग नही था, सब काले थे। सब एक बराबर भी नही थे, कोई बड़ा तो कोई छोटा। मैं इस घटना को समझ पाता कि इतने में उन फूलों ने एक साथ बड़बड़ाना शुरू कर दिया। वह कुछ कह रहे थे मगर शोरगुल में वो सारे शब्द समुद्र की लहरों की तरह तीतर बितर हो रहे थे, उनको समझ पाना मुश्किल था जैसे ख़ाक छानते मेरे विचारो को समझना। गौर करने पर समझ आया की हर फूल बार बार एक ही शब्द दोहरा रहा है। मैने जिज्ञासा में एक फूल को छू लिया, एकदम से सभी फूलों ने बड़बड़ाना बंद कर दिया। मैने उसी फूल को फिर से छुआ तो वह बोला "प्यार"। दूसरा बोला "इच्छाएं", तीसरा "दर्द", चौथा "खुशी"... "लालच", "जलन", "गुस्सा", "मजबूरी"... और ना जाने क्या क्या। तब मुझे पता चला कि ये फूल उस एहसास को दोहरा रहे है जिस एहसास के शब्द से ये अंकुरित हुए थे और फिर फूल में तब्दील हो गए थे। फिर सभी फूल वापस किताबों के अंधेरे में गुम होने लगे। मैने उसी वक्त एक किताब उठाई और लैंप जलाकर पढ़ने लगा और देखते ही देखते मेरे ख़ाक छानते विचारों को भी मिल गया था... उनका घर।