Tuesday, 27 October 2020

मैं टूट कर बिखर जाऊ !

 



मैं टूट कर बिखर जाऊ,

फिर कतरा कतरा छनु ,

जैसे मिट्टी में चूर,

खुद को ही स्पर्श करू|

मैं बट जाऊ टुकड़ों में,

फिर कोई वजूद ना हो,

अनगिनत रंग समेटु,

मीठी सी खुशबू लिए,

मैं किरणों मे लिपट जाऊ,

फिर हर हलचल पर मचलु,

अग्नि से भी तेज जलू,

हर आरज़ू आखिरी सांस ले|

मैं फिर निखरू ऐसे,

जैसे भव्य गाथा का

आगाज़ हुआ हो,

कतरा कतरा फिर बनूं

जैसे ज़िन्दगी का

एहसास हुआ हो ||


Saturday, 10 October 2020

ख़्वाब !



मैं मुड़ा,

मेरी आँखे स्थिर थी,

मेरा मन और पैर दोनों 

एक समान थे, 

एकदम स्तब्ध...!!


मुड़ने से पहले मैं कुछ

निहार रहा था,

वहाँ शोर था,

बहुत शोर,

जैसे कोई जश्न हो,

मुड़ते ही,

वो शोर कम हो गया,

कुछ कदम बढ़ाए

तो शोरगुल गहरे सन्नाटे

में तब्दील होने लगा।


वो शोर मेरी सांसो का था

और जश्न मेरे ख्वाबों का,

थोड़ी दूर पर ज़िन्दगी खड़ी थी,

और मानो वक़्त ने पहली दफा

फ़ुरसत ली थी,

बस कुछ बहुत सुंदर सवाल

मेरे आगे तैर रहे थे,

जिनका जवाब जानने की 

मुझे कोई उत्सुकता नहीं थी|


एक सुंदर एहसास हवा बनकर

मेरे इर्द गिर्द घूम रहा था,

जैसे वो मेरे लिए हैं

मगर मेरा नहीं है,

हर शोर से दूर,

हर ख्वाब से दूर,

ज़िन्दगी ने मुझे गले लगा लिया | |


Monday, 5 October 2020

एक तारा !

JNU Campus, Delhi

विरहा में एक तारा,
नींद चैन का मारा,
चाँद से हरदम ही हारा,
था टूट गया बेचारा |

बनु चाँद सा आशा थी,
विफलता की निराशा थी,
चाँद का गम वो जान ना पाया,
टूट गया तब समझ में आया |

*(अब तारा चाँद के लिए कहता है )*

वो ढूंढ़ता है साथी हरदम,
मैं पला बड़ा हूँ मंडल मे,
विष समझ ठुकरा दिया,
पर अमृत था कमण्डल मे |

ले रोशनी उधार की उसे,
हर रोज निकलना पड़ता है,
इस मजबूरी के चक्र मे,
हर रोज बदलना पड़ता है |

भले, मूक गगन का गीत है वो,
युगो-युगो की रीत है वो,
पूर्णिमा का श्रंगार भी वो है,
पर, अमावस का अँधकार भी वो है |

एक पल भी मैं जी न पाया,
जीता रहा मैं चाँद को,
काश खुद को जाना होता,
तो जी लेता ब्रह्मांड को | 

अब जो मिला हूँ मुझसे मैं,

कोई गम नहीं है हिस्से मे,
अब मौत को भी जी रहा हूँ मैं,
ए-ज़िन्दगी तुझसे अब मिला हूँ मैं,
ए-ज़िन्दगी तुझसे अब मिला हूँ मैं | 


मेरी रातें कुछ कहती है सुबह से !

Arts Faculty, Delhi

मेरी रातें कुछ कहती है सुबह से…

कि तू कितना भी इतराले रौशनी पर अपनी,

मगर तू दिखा नहीं सकती वो लब्ज़ बेजुबां से…

वो ज़ुबान सिर्फ मैं जानती हूँ | 


मेरी रातें कुछ कहती है सुबह से…

मैं पर्दा करती हूँ तो तू हटाती है,

जैसे कोई जुस्तजू है ख़ुदा की,

मगर तू दिखा नहीं सकती वो जज़्बात हवा से… 

जो इन पर्दो में झूलते है,

वो एहसास सिर्फ मैं जानती हूँ | 


मेरी रातें कुछ कहती है सुबह से… 

खामोश कौन है, मैं या तू ?

अक्सर ज़ुबान की बातें सुनती है तू,

मगर मेरी आगोश में तो दिल भी बातें करते है,

वो बातें सिर्फ मैं जानती हूँ | 


हर रोज नए सितारे आते है,

मेरे जहाँ में तेरे जहाँ से,

उन सितारों पर हक़ तेरा भी है,

मगर उन्हें सिर्फ मैं पहचानती हूँ,

मेरी रातें कुछ कहती है सुबह से… | |